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ll HARE RAM ll शिवत्व के बिना सुंदरता मूल्यहीन मूल्यशास्त्र का महावाक्य है 'सत्यं शिवं सुन्दरं'। मानव

जीवन के यही तीन मूल्य हैं। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है। पश्चिम का सौंदर्यशास्त्री यह मानकर चलता है कि 'सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है।' यानी सौंदर्य

बोध नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। वह 'सत्य-शिव-सुन्दर' को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है। मूल्य सापेक्ष न होकर

निरपेक्ष हैं। मनुष्य इसलिए मनुष्य है, क्योंकि वह मूल्यों के अधीन है। मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है। 'सुन्दर' क्या है? जो शिव है वही सुंदर है। अर्थात जिसमें 'शिवत्व' नहीं

है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है। 'यस्मिन् शिवत्वं नास्ति तस्मिन सुन्दरं अपि नास्ति एव।' हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है-यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है। सुख और

दु:ख संस्कारगत होने के नाते व्यक्तिनिष्ठ हैं। अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है। एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख। परंतु सुंदरता तो

वस्तुनिष्ठ ही है। हमारा शास्त्र बोलता है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है। यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो। गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और

अंतत: दु:खवर्धक है। 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एवते'। ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विषतुल्य होता है। यदि क्षणिक

सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है। कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते

अंतत: वही सुन्दर है। गीता भी कहती है: 'यत्तदग्रे विषामिव परिणामेमृतोपमम्'। यहां यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? यदि कोई कष्टकर अभ्यास

दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ है तो वह 'तप' है और इसलिए सुंदर है। प्रमादजनित सुख सुंदर हो ही नहीं सकता। चूंकि 'तप' विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है। इस प्रकार

'सुन्दरं' की परिभाषा निश्चित हुई । 'यत् शिवं तत् सुन्दरम्'। 'शिव' का अर्थ है मंगल। 'मंगल' शब्द 'मग्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है; विकास है;

प्रगति है। शास्त्र बाहरी प्रगति का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे 'अभ्युदय' कहता है। अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर,

निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढ़ना प्रगति है। समृद्धि के पीछे 'कर्मकौशल' होता है। प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती। विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है:

'विद्वान जानाति विद्वज्जन परिश्रम:'। श्रम तो स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह 'तप' है। भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है। 'जीवत्व' से 'ब्रह्मत्व' की ओर जाना ही

आध्यात्मिक प्रगति है। सत्व में स्थित होना प्रगति है; विनम्रता में अवस्थित होना प्रगति है; भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है। शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण।

अत: यह मानकर चलें कि जो शिव है वही सुंदर है। यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।आखिर 'शिवं' का हेतु क्या है। भारतीय ऋषि बोलता है 'सत्यं'। वेदान्त की भाषा में

'सत्य-शिव-सुन्दर' में हेतुफलात्मक सम्बंध है। इसका अर्थ हुआ: 'यत् सत्यं तत् शिवं, यत् शिवं तत् सुंदरं'। शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है। शास्त्र को समझने

के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगड़ने लगता है। हमें सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिए।रामायण और महाभारत हमारे

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। जहां रामायण पारिवारिक सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का। नीति को लेकर दोनों में अंतर है। नीति कहती है कि अपंग को राजा

नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए बड़े भाई होने के बावजूद जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया। बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का

प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गए। इस सत्य को धृतराष्ट्र ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा। यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिए होते कि राजवंश

पाण्डु का चलना चाहिए तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता। धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवनभर असत्य में करता रहा। उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।इधर मर्यादा

पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोड़ा। उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि "सब सम्पत्ति रघुपति कै आही" और आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि "'हित हमार सियपति सेवकाई" ।

सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीराम के आदेश पर वे अयोध्या के प्रतिनिधि ही बने रहे। इस प्रकार भरत के सत्याग्रह से रामायण निकली और धृतराष्ट्र के

असत्याग्रह से महाभारत। जिस सुंदरता से शिव न प्रकट हो वह छलावा है और जिस शिव से सत्य न प्रकट हो वह अमंगलकारी है। भवदीयशशि शेखर HARE_RAM Astro_Remedies Manglik_ManglikShashi S.Sharma [Vedic Astrologer & Gems Advisor] Delhi, Cell-09818310075 polite.astro polite_astro

Moody friends. Drama queens. Your life? Nope! - their life, your story. Play Sims Stories at Games.

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namaskar sorry couldnt get ze msg thx regards bhoumija Shashie Shekhar <polite_astro wrote: ll HARE RAM ll शिवत्व के बिना सुंदरता मूल्यहीन मूल्यशास्त्र का महावाक्य है 'सत्यं शिवं सुन्दरं'। मानव जीवन के

यही तीन मूल्य हैं। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है। पश्चिम का सौंदर्यशास्त्री यह मानकर चलता है कि 'सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है।' यानी सौंदर्य बोध

नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। वह 'सत्य-शिव-सुन्दर' को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है। मूल्य सापेक्ष न होकर

निरपेक्ष हैं। मनुष्य इसलिए मनुष्य है, क्योंकि वह मूल्यों के अधीन है। मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है। 'सुन्दर' क्या है? जो शिव है वही सुंदर है। अर्थात जिसमें 'शिवत्व' नहीं

है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है। 'यस्मिन् शिवत्वं नास्ति तस्मिन सुन्दरं अपि नास्ति एव।' हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है-यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है। सुख और

दु:ख संस्कारगत होने के नाते व्यक्तिनिष्ठ हैं। अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है। एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख। परंतु सुंदरता तो

वस्तुनिष्ठ ही है। हमारा शास्त्र बोलता है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है। यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो। गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और

अंतत: दु:खवर्धक है। 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एवते'। ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विषतुल्य होता है। यदि क्षणिक

सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है। कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते

अंतत: वही सुन्दर है। गीता भी कहती है: 'यत्तदग्रे विषामिव परिणामेमृतोपमम्'। यहां यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? यदि कोई कष्टकर अभ्यास

दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ है तो वह 'तप' है और इसलिए सुंदर है। प्रमादजनित सुख सुंदर हो ही नहीं सकता। चूंकि 'तप' विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है। इस प्रकार

'सुन्दरं' की परिभाषा निश्चित हुई । 'यत् शिवं तत् सुन्दरम्'। 'शिव' का अर्थ है मंगल। 'मंगल' शब्द 'मग्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है; विकास है;

प्रगति है। शास्त्र बाहरी प्रगति का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे 'अभ्युदय' कहता है। अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर,

निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढ़ना प्रगति है। समृद्धि के पीछे 'कर्मकौशल' होता है। प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती। विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है:

'विद्वान जानाति विद्वज्जन परिश्रम:'। श्रम तो स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह 'तप' है। भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है। 'जीवत्व' से 'ब्रह्मत्व' की ओर जाना ही

आध्यात्मिक प्रगति है। सत्व में स्थित होना प्रगति है; विनम्रता में अवस्थित होना प्रगति है; भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है। शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण।

अत: यह मानकर चलें कि जो शिव है वही सुंदर है। यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।आखिर 'शिवं' का हेतु क्या है। भारतीय ऋषि बोलता है 'सत्यं'। वेदान्त की भाषा में

'सत्य-शिव-सुन्दर' में हेतुफलात्मक सम्बंध है। इसका अर्थ हुआ: 'यत् सत्यं तत् शिवं, यत् शिवं तत् सुंदरं'। शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है। शास्त्र को समझने

के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगड़ने लगता है। हमें सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिए।रामायण और महाभारत हमारे

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। जहां रामायण पारिवारिक सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का। नीति को लेकर दोनों में अंतर है। नीति कहती है कि अपंग को राजा

नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए बड़े भाई होने के बावजूद जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया। बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का

प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गए। इस सत्य को धृतराष्ट्र ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा। यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिए होते कि राजवंश

पाण्डु का चलना चाहिए तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता। धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवनभर असत्य में करता रहा। उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।इधर मर्यादा

पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोड़ा। उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि "सब सम्पत्ति रघुपति कै आही" और आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि "'हित हमार सियपति सेवकाई" ।

सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीराम के आदेश पर वे अयोध्या के प्रतिनिधि ही बने रहे। इस प्रकार भरत के सत्याग्रह से रामायण निकली और धृतराष्ट्र के

असत्याग्रह से महाभारत। जिस सुंदरता से शिव न प्रकट हो वह छलावा है और जिस शिव से सत्य न प्रकट हो वह अमंगलकारी है। भवदीयशशि शेखर HARE_RAM Astro_Remedies Manglik_Manglik Shashi S.Sharma [Vedic Astrologer & Gems Advisor] Delhi, Cell-09818310075 polite.astro polite_astro (AT) hotmail (DOT) com Moody friends.

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Namaskar Please send these articles in English for the benefit of those of us who dotn know Hindi.Thanks ramaaShashie Shekhar <polite_astro wrote: ll HARE RAM

ll शिवत्व के बिना सुंदरता मूल्यहीन मूल्यशास्त्र का महावाक्य है 'सत्यं शिवं सुन्दरं'। मानव जीवन के यही तीन मूल्य हैं। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव

है वहीं सुंदर है। पश्चिम का सौंदर्यशास्त्री यह मानकर चलता है कि 'सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है।' यानी सौंदर्य बोध नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा

सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। वह 'सत्य-शिव-सुन्दर' को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है। मूल्य सापेक्ष न होकर निरपेक्ष हैं। मनुष्य इसलिए मनुष्य है, क्योंकि वह

मूल्यों के अधीन है। मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है। 'सुन्दर' क्या है? जो शिव है वही सुंदर है। अर्थात जिसमें 'शिवत्व' नहीं है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है। 'यस्मिन्

शिवत्वं नास्ति तस्मिन सुन्दरं अपि नास्ति एव।' हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है-यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है। सुख और दु:ख संस्कारगत होने के नाते

व्यक्तिनिष्ठ हैं। अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है। एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख। परंतु सुंदरता तो वस्तुनिष्ठ ही है। हमारा

शास्त्र बोलता है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है। यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो। गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और अंतत: दु:खवर्धक है। 'ये हि

संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एवते'। ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विषतुल्य होता है। यदि क्षणिक सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख

का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है। कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते अंतत: वही सुन्दर है। गीता भी कहती है:

'यत्तदग्रे विषामिव परिणामेमृतोपमम्'। यहां यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? यदि कोई कष्टकर अभ्यास दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने

में समर्थ है तो वह 'तप' है और इसलिए सुंदर है। प्रमादजनित सुख सुंदर हो ही नहीं सकता। चूंकि 'तप' विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है। इस प्रकार 'सुन्दरं' की परिभाषा निश्चित हुई ।

'यत् शिवं तत् सुन्दरम्'। 'शिव' का अर्थ है मंगल। 'मंगल' शब्द 'मग्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है; विकास है; प्रगति है। शास्त्र बाहरी प्रगति

का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे 'अभ्युदय' कहता है। अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर, निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढ़ना प्रगति

है। समृद्धि के पीछे 'कर्मकौशल' होता है। प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती। विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है: 'विद्वान जानाति विद्वज्जन परिश्रम:'। श्रम तो

स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह 'तप' है। भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है। 'जीवत्व' से 'ब्रह्मत्व' की ओर जाना ही आध्यात्मिक प्रगति है। सत्व में स्थित होना प्रगति

है; विनम्रता में अवस्थित होना प्रगति है; भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है। शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण। अत: यह मानकर चलें कि जो शिव है वही सुंदर है। यह जीवन

दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।आखिर 'शिवं' का हेतु क्या है। भारतीय ऋषि बोलता है 'सत्यं'। वेदान्त की भाषा में 'सत्य-शिव-सुन्दर' में हेतुफलात्मक सम्बंध है। इसका अर्थ

हुआ: 'यत् सत्यं तत् शिवं, यत् शिवं तत् सुंदरं'। शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है। शास्त्र को समझने के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिए।

यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगड़ने लगता है। हमें सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिए।रामायण और महाभारत हमारे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। जहां रामायण पारिवारिक

सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का। नीति को लेकर दोनों में अंतर है। नीति कहती है कि अपंग को राजा नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए बड़े भाई होने के बावजूद

जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया। बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गए। इस सत्य को धृतराष्ट्र

ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा। यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिए होते कि राजवंश पाण्डु का चलना चाहिए तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता।

धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवनभर असत्य में करता रहा। उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।इधर मर्यादा पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोड़ा। उन्होंने भरी सभा में

घोषणा की कि "सब सम्पत्ति रघुपति कै आही" और आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि "'हित हमार सियपति सेवकाई" । सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीराम के आदेश पर वे अयोध्या

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